हम अपनी मुलवृती के सामानांतर जीवन गढ़ते है,यह वृति ही मूल संघर्ष है,स्वयं से संघर्ष एवं जीवटता हमारे भीतर स्थिरता लाती है,कभी कभी यह आत्मघातीभी हो जाती है,जो हमें मृत्यु तक ले जाती है,जिस भी क्षण कोई आत्महत्या कर रहा होता है, मुलवृती का आवेग इतना त्रिव ,तेज,एवं चरम पर होता है की वह सांसारिकता का अतिक्रमण कर लेता है,ओर सारी चीजे अर्थहीन हो जाती है.
जीवन मे कुछ भी निश्चित नहीं है,"मृत्यु निश्चित है." तब हम जीवन को किस अर्थ मे लेते है,यह महत्वपूर्ण है.यह संवाद का विषय था,हम चारो इस की चर्चा कर रहे थे.तब से यह बात मुझे परेशां किये जा रही है,क्यों कोई आत्महत्या करता है,या ऐसा कोनसा चरम होता है ,जो कलाकार को आत्महत्या के लिए मजबूर करता है, ?जीने की सार्थकता? निर्थकता? क्षणभंगुरता? सम्पूर्णता? आनंद? इत्यादि!!.................नाव मे छेद है , ईश्वर का इंतजार अवसर भी है पतवार भी.
- राजेश एकनाथ
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